निपातार्थ

निपात शब्दों के अर्थ के विषय में नैयायिकों तथा वैयाकरणों का मतभेद है। नैयायिक लोग निपातों को वाचक तथा उपसर्गों को द्योतक मानते हैं। किन्तु वैयाकरण इस भेद को न मानकर सभी की चोतकता का ही समर्थन करते हैं। - केवल उपसर्ग का प्रयोग नहीं होता है। अतः उसके साथ धातु का प्रयोग होने पर प्रतीयमान अर्थ किसका है-इस विषय में तीन पक्ष हो सकते हैं। जैसे प्रजपति यहाँ प्रकृष्ट जपरूप अर्थ (१) 'प्र' उपसर्ग का है, (२) 'जप' घातु का है अथवा (३) दोनों के समुदाय का है? 'प्र' का अर्थ मानने पर प्रभवति यहाँ भी प्रतीति होने लगेगी। अप का अर्थ मानने पर 'प्र' के अभाव में भी प्रतीति होने लगेगी। समुदित का अय मानने पर अडादि-व्यवस्था में अनुपपत्ति होने लगेगी। अतः यही उचित १ वह अयं धातु का ही माना जाय और उपसर्ग को इसका चोतक माना जाय। यह द्योतकता 'सक्षाक्रियते गुरुः' आदि निपात-प्रयोग में भी माननी चाहिये । घातकता का अर्थ है-(१) अपने समभिव्याहृत [साथ में प्रयुक्त पद में रहने वाली रात का उद्बोधक होना । (२) कहीं-कहीं क्रिया-विशेष का आपक होना भी द्योतकता है। जैसे 'प्रादेशं विलिखति' यहाँ 'वि' उपसर्ग 'मान' क्रिया का आक्षेपक है 'वियाय लिखति' यह अर्थ होता है। (३) कहीं कहीं सम्बन्ध का परिच्छेदक होना मा घातकता है। जैसे--'जपमनु प्रावर्षत' आदि में कर्मप्रवचनीय शबदों की होती है। लक्ष्यलक्षणभाव सम्बन्ध प्रतीत होता है ।

उपसर्ग एवं निपात दोनों ही द्योतक हैं। अतः इनकी पर्यवत्ता भी धोत्य वर्ष को ही लेकर है क्योंकि शक्ति, लक्षणा एवं योतकता किसी भी एक सम्बन्ध से बोधक होना घोतक होना है।

इस प्रकरण में निपातविशेष इव, नम् तथा एव के अर्थों पर भी विचार किया गया है। इब यह निपात उपमानता का घोतक है। उपमान एवम् उपमेय दोनों में रहने वाले साधारण-धर्मबत्त्वरूप से ईषत् इतरपरिच्छेदक होना उपमानता है। और इसी धर्मवत्ता से परिच्छेद्य होना उपमेयता है। साधारण धर्म का सम्बन्ध कहीं विशेष्यतारूप से और कहीं विशेषणतारूप से होता है।

नन् दो प्रकार है- (१) पर्यंतस और (२) प्रसज्यप्रतिषेध । इनमें पर्युदास ना का द्योत्यार्थ है आरोपविषयता। आरोपविषयता के घोतक होने का अर्थ है-नन से समभिव्याहृत घटादि पदों का आरोपित प्रवृत्तिनिमित्त की बोधकता में तात्पर्य-ग्राहक होना। अतः 'अब्राह्मण' आदि में आरोपित-ब्राह्मणत्ववान्, यह अर्थ होता है। अन्य में अन्य के धर्म का आरोप तो आहार्य ज्ञानरूप होता है। सादृश्य और अमाव आदि छह तो नन के आर्थिक अर्थ हैं शाखिदक नहीं।

प्रसज्यप्रतिषेध समस्त एवम् असमस्त दोनों स्थलों पर होता है। इसमें समास स्थल में अत्यन्तामाव अर्थ होता है तथा असमास-स्थल में अत्यान्तामाव एवम् अन्योन्यामाव दोनों अर्थ होते हैं। तादात्म्य सम्बन्ध से भिन्न सम्बन्ध से अभाव अत्यन्तामाष और तादात्म्य सम्बन्ध का अभाव अन्योन्याभाव होता है। अत्यन्ताभाव विशेष्यतारूप से तिङन्तार्थक्रिया में ही अन्वित होता है।

एव के दो अर्थ हैं (१) अवधारण और (२) असम्भव। यह अवधारण तीन प्रकार का होता है--(१) विशेष्य के साथ एक्कार में अन्ययोगव्यच्छेदरूप (२) विशेषण के साथ एवकार में अयोगव्यवच्छेदरूप तथा (३) क्रिया के साथ एक्कार में अत्यन्तअयोगव्यवच्छेदरूप। योग-तम्बन्ध, व्यवछेद-निवृत्ति, अयोग-सम्बन्धाभाव । क्रमशः उदाहरण-(१) पार्थ एव धनुर्धरः, यही अन्य में धनुर्धरत्व का व्यवच्छेद । (२) शङ्ख पाण्डुर एव-यहाँ अयोगव्यवच्छेद-सम्बन्धाभाव की निवृत्ति से पाण्डुरत्व का अव्यभिचरित सम्बन्ध प्रतीत होता है। (३) नीलं सरोज भवत्येवयहाँ अतिशयित अयोग-सम्बन्धाभाव की निवृत्ति प्रतीत होती है। अतः नीलव गणवान् से अभिन्न सरोज-कर्तृक सत्ता और कभी कभी अन्य गुण से युक्त सरोज कतृ कसत्ता इसकी भी प्रतीति होती है।